Tandava: If you cannot become a king, you have to become a king maker.

तांडव: किंग न बन सको तो किंग मेकर बनने में है…

किंग न बन सको तो किंग मेकर बनने में समझदारी है। राजनीति में यह बड़ा दांव है। चाणक्य बनकर चंद्रगुप्त को गद्दी पर बैठाने में ज्यादा फायदा है। अमेजॉन प्राइम पर डायरेक्टर अली अब्बास जफर सिल्वर स्क्रीन के बाद डिजिटल स्क्रीन पर इसी फलसफे को भव्य कैनवास के साथ लेकर आए हैं। मगर तांडव शुरुआत के साथ मन में रमने तक दर्शकों के धैर्य की परीक्षा भी लेती है। चूंकि हमारे आसपास देश दुनिया, घर परिवार कहीं न कहीं राजनीति या सत्ता या ताकत का खेल चलता ही रहता है इसलिए ऐसी कहानियों में बहुत कुछ अनदेखा या अनसुना मिलना मुश्किल होता है. फिर भी ऐसे विषय को अपने डिजिटल डेब्यू में चुनकर अली जफर ने हिम्मत दिखाई है।

अमेजन प्राइम पर आई इस वेबसीरीज की शुरुआत देश पर शासन कर रहे जन लोक दल (जेएलडी) के बदलते रंग-रूप के साथ होती है, जो तीसरी बार आम चुनाव जीतने की कगार पर है। इस जीत के साथ तय है कि देवकी नंदन (तिग्मांशु धूलिया) ही तीसरी देश की कमान संभालेंगे। मगर परिणाम आने से पहले ही उनकी मौत से सियासत बदल जाती है। पीएम पद पर अब देवकी के बेटे समर प्रताप सिंह (सैफ अली खान) की दावेदारी बनती है, लेकिन एक अनजान कॉलर के सीन में आते ही ऐसे दांव-पेंच चलते हैं और तीस साल से देवकी की ‘खास’ रहीं अनुराधा (डिंपल कपाड़यिा) को देश की गद्दी मिल जाती है।

तांडव में देश में राजनीति के दो पहलुओं को साथ-साथ लेकर चलती दिखती है, एक जिसमें तरक्की और विकास के लिए नेताओं और उद्योगपतियों की साठ-गांठ नजर आती है तो दूसरी किसान और मजदूरों की लड़ाई लड़ती है। इस फ्रेम में छात्र राजनीति भी दाखिल होती है तो तांडव के अंदाज को एक नया तेवर मिलता है। यहां रातों-रात चमका शिव शेखर (मोहम्मद जीशान अयूब) लोगों का चहेता बन जाता है। इन ध्रुवों के बीच खाका खींचती कहानी पहले पांच एपिसोड तक सिर्फ नई जानकारियां और किरदारों का संतुलन बिठाती नजर आती है। इसके बाद इसमें इमोशन के रंग गहरे होते हैं।

देश की राजनीति के किरदारों-घटनाओं से आपको बहुत कुछ देखा-सुना सा लगता है लेकिन रफ्तार धीमी होने से कहानी स्पार्क से चूकती भी है। सधे प्लॉट के बावजूद पटकथा ढीली लगती है। तांडव में किसान आंदोलन, विवि की राजनीति और सत्ता की सियासत का कॉकटेल एक-दूसरे से पूरी तरह नहीं घुल पाते इसलिए उनके किरदार दृश्यों से अधिक व्यक्तिगत प्रदर्शन पर टिके दिखते हैं।

कलाकारों में सबसे उम्दा अंदाज में डिंपल कपाड़िया और मोहम्मद जीशान अयूब उभरते हैं। सैफ न नेता लगते हैं न तानाशाह। अंतिम दृश्यों में उनकी अदाकारी जरूर रुझान खींचती है। सुनील ग्रोवर ने वैरिएशन दिखाया है। जबकि बाकी कलाकारों ने अपनी-अपनी भूमिकाएं ठीक-ठाक अंदाज में पूरी कर दी हैं। नौ कड़ियों का तांडव सीजन वन डांवाडोल शुरुआत के बाद अंत तक कुछ संभलता है। सीरिज में कुछ बातों के जवाब अधूरे हैं, जिसके चलते दर्शकों को दूसरे सीजन का इंतजार रहेगा।

 

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