Review: Film showing the truth of selfish politics and the pain of shattering relationships

Review: स्वार्थी सियासत की सच्चाई और बिखरते रिश्तों का दर्द दिखाती फिल्म

हाथों की सत्ता और तालाब का पानी लंबे समय तक टिक जाएं तो सड़ना शुरू कर देते हैं। मगर मौजूदा सियासतदान यह बात भूलकर ताउम्र कुर्सी की चाह रखते हुए संपत्ति, सम्मान और संतान तक की आहूति देने को तैयार रहते हैं। राजस्थान के एक छोटे-से गांव की सच्ची घटना पर आधारित है निर्माता-निर्देशक गजेंद्र एस. श्रोत्रिय की फिल्म कसाई। ओटीटी प्लेटफार्म शेमारू पर रिलीज डेढ़ घंटे की यह फिल्म हमारे देश के उस समाज का चित्रण करती है, जिसमें सत्ता की चाबी रखने की चाह में सियासी शत्रु हों या सिस्टम की सीढ़ियां, सभी कुछ रौंदने की दौड़ रहती है। लेकिन जाने-अनजाने इस चपेट में वे लोग आते हैं, जिनकी न सत्ता से साझेदारी है, न सिस्टम की कोई समझदारी। वो मोहरा बनकर कब इस्तेमाल हो जाते हैं, खुद उन्हें भी नहीं पता चलता।

फिल्म कसाई की शुरुआत राजस्थान के गांव सेंगरपुर के सरपंच पूर्णाराम (वीके शर्मा) और उसके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी भग्गी पटेल (अशोक बंथिया) के साथ सरपंच चुनाव की रस्साकशी से होती है। एक-दूसरे को नीचा दिखाने और हराने के दांवपेच के बीच दोनों परिवारों की तीसरी पीढ़ी यानी सरपंच के पोते सूरज (मयूर मोरे) और भग्गी की बेटी मिश्री (ऋचा मीना) एक दूसरे के प्यार में पागल हो जाते हैं। एक दिन दोनों की असलियत मिश्री के घरवालों को पता चलती है तो दोनों परिवारों की राजनीतिक रंजिश जानी दुश्मनी में तब्दील हो जाती है। बेटे सूरज के प्यार से अनजान पिता लाखन (रवि झंखाल) चुनाव में वोटों पर इसका असर रोकने को जबरन बेटे को शहर भेजने पर अड़ जाता है, लेकिन मां गुलाबी (मीता वशिष्ठ) को यह मंजूर नहीं होता। मगर वक्त चुनाव का है, जिसमें अंतरजातीय रिश्तों के उजागर होने से हार का डर दिखाकर लाखन गुलाबी को राजी कर लेता है।

शहर जाकर जहां-तहां काम के लिए घूमते सूरज की तबीयत बिगड़ने लगती है और मजबूर होकर वह गांव लौट पड़ता है, लेकिन घर की देहरी पर आकर उसके साथ एक अनहोनी घट जाती है। पूरे गांव को लगता है कि यह किसी साये का असर है, लेकिन सरपंच के पूरे परिवार को सच पता होता है। अब एक तरफ सत्ता की मलाई है तो दूसरी ओर ममता की लड़ाई। पूरा परिवार पहली राह पर बढ़ जाता है, लेकिन मां गुलाबी मन में इंसाफ की लौ जलाए इसके पर्दाफाश के जतन में जुट जाती है। आखिरकार समाज, परिवार और खुद की सीमाओं से लड़ती मां बेटे की निशानी और उसके सपने के लिए समझौता कर लेती है। यहां से कहानी नए मोड़ पर बढ़ती है, जहां लालच, वासना और आडंबर का भौंडा प्रदर्शन सामने दिखने लगता है। ऐसे में गुलाबी की बेटे के लिए इंसाफ की लड़ाई या पूर्णाराम की सियासत किस मोड़ पर खत्म होती है, इसे झकझोरने वाले अंदाज में दिखाया गया है।

अभिनय की बात करें तो मीता वशिष्ठ और रवि झंखाल ने प्लॉट की बहुत खूबसूरत अगुवाई की है। बाकी कलाकार अपनी भूमिकाओं में बखूबी सधे नजर आते हैं। निर्देशक गजेंद्र श्रोत्रिय ने फिल्म की कहानी, पटकथा, संवाद और संपादन भी साथ-साथ देखा है, लिहाजा कहीं भी फिल्म ट्रैक से नहीं उतरती है। एक ग्रामीण परिवेश और बोली के साथ कहानी को कहने का अंदाज रोचक और लुभावना है। फिल्म का क्लाइमेक्स में थोड़ा विस्तार की जरूरत लगती है, जहां किरदारों का विराम न मिलना थोड़ा अधूरापन छोड़ता है।

कलाकार: रवि जंखाल, मीता वशिष्ठ, मयूर मोरे, ऋचा मीना, वीके शर्मा।

अवधि : 1 घंटे 36 मिनट

ओटीटी : शेमारू

रेटिंग***

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